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समावेशी शिक्षा
स्वतंत्रता प्राप्ति के 71वर्ष बीत जाने के बाद आज भी विकलांग बच्चे विकास की मुख्यधारा से अलग ही दिखाई पड़ते हैं ।सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर उनके विकास के लिए किए जाने वाले अनेक प्रयत्नों के बावजूद भी विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं आया है। विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की अधिकांश आबादी जो कि 5 से 10 फ़ीसदी है, आज भी समाज की मुख्यधारा से जुड़ नहीं पाई है ।शिक्षा विकास के महत्व को देखते हुए यह आवश्यक है कि विकलांग बालकों की शिक्षा व्यवस्था पर ध्यान दिया जाए। अशिक्षा से उत्पन्न होने वाली सामाजिक विकृतियों एवं असमानता से बचने की बात करते हुए समावेशी शिक्षा की बात कही गई है।
समावेशी शिक्षा अर्थात ऐसी शिक्षा जहां पर सामान्य बालकों के साथ दिव्यांग बालको अथवा असमर्थ बालकों को एक साथ बैठाकर एक ही कक्षा में एक ही माहौल में पढ़ाया जाए।विकलांग बालक अपने आपको समाज का एक कटा हुआ भाग न समझकर समाज का हिस्सा ही समझे साथ ही विद्यालय एवं समाज के लोग भी उनके साथ सामान्य व्यवहार करें। जीवन में शिक्षा की इतनी अधिक उपयोगिता है की कहा गया है “बिना शिक्षा व ज्ञान के मनुष्य पशु के समान है।”
वर्तमान समय में सामान्य शिक्षा के साथ-साथ समावेशी शिक्षा पर अधिक जोर दिया जा रहा है समावेशी शिक्षा शिक्षण की ऐसी प्रणाली है जिसमें विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ मुख्यधारा के स्कूलों में पठन-पाठन और आत्मनिर्भर बनने का मौका मिलता है जिससे वे समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सके। इसके तहत स्कूलों में पठन-पाठन के अलावा विकलांगों के लिए वातावरण भी तैयार करता है जिससे छात्र लाभान्वित होते हैं।विशेष आवश्यकता वाले बच्चे सामान्यतः दृष्टि, श्रवण, अधिगम अक्षमता के साथ-साथ मानसिक मंदता से ग्रस्त होते हैं ।सामान्य बच्चों के साथ समायोजित होने में इन्हें काफी कठिनाई होती है। माता-पिता या अभिभावकों की सोच भी बच्चों के प्रति सकारात्मक नहीं होती जिसके कारण वे अपने आप को समाज से अलग महसूस करते हैं परिणाम स्वरूप वे स्कूली शिक्षा से बाहर ही रह जाते हैं ।इसलिए ऐसे बच्चों का शिक्षा में समावेशन किया जाना अति आवश्यक है।समावेशी शिक्षा में उन सभी तथ्यों को सम्मिलित किया जाता है जो विशिष्ट बालकों के को ऊपर लागू होते हैं अर्थात समावेशी शिक्षा शारीरिक, मानसिक, प्रतिभाशाली तथा विशिष्ट गुणों से युक्त विभिन्न बालकों पर अपनाई जाती है।यह एक ऐसी शिक्षा पद्धति है जो यह तय करती है कि प्रत्येक छात्र को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले और इसमें उसकी योग्यता, शारीरिक अक्षमता, भाषा, संस्कृति, पारिवारिक पृष्ठभूमि तथा उम्र किसी प्रकार का अवरोध पैदा ना कर सके।
कोठारी आयोग ( भारत का प्रथम शिक्षा आयोग) के अनुसार ‘एक विकलांग बच्चे के लिए शिक्षा का पहला कार्य है कि सामान्य बच्चों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बनाए गए सामाजिक- सांस्कृतिक पर्यावरण में समंजन के लिए उसे तैयार करें। इसलिए आवश्यक है कि विकलांग बच्चों की शिक्षा सामान्य शिक्षा प्रणाली का ही एक अभिन्न अंग हो, अंतर केवल बच्चे को पढ़ाने की विधि और बच्चे द्वारा ज्ञान प्राप्ति के लिए अपनाए गए साधनों में होगा’।
वर्तमान समय में विश्व के समस्त देश अपनी भावी पीढ़ी के सर्वांगीण विकास के लिए अनेक प्रयत्न कर रहे हैं। समाज के विभिन्न तबके के समुचित विकास के लिए विभिन्न शैक्षिक, आर्थिक योजनाओं के साथ वि विशिष्टताओं को ध्यान में रखते हुए वर्तमान समय में समावेशी शिक्षा की तरफ गंभीरता से ध्यान दिया जा रहा है।अतः यह एक महत्वपूर्ण सामाजिक उत्तरदायित्व है कि सामान्य से अलग उन बच्चों की शिक्षा की तरफ ध्यान दिया जाए जो किन्हीं कारणों से शिक्षा से वंचित है।
अतः वर्तमान समय में उनके लिए समावेशी शिक्षा की बात विश्व समुदाय कर रहा है, जो कि विकलांग और सामान्य दोनों बालकों के लिए अत्यधिक उपयोगी है ।जरूरत है तो बस उनकी शिक्षा के संबंध में जानकारी एकत्रित की जाए, उनकी परिस्थितियों के यथार्थ का व्यवहारिक आकलन करते हुए उचित नीतियां बनाई जाए, जिससे कि उनके जीवन पर सकारात्मक प्रभाव डाला जा सके और शिक्षा से दूर उन समस्त बच्चों को उचित शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करते हुए उन्हें नई दिशा दी जाए।
By – Vice Principal – Dr. Sangeeta Rawat
Department -EDUCATION
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